मानव विकास का आधार इसका मूल्य चिंतन कुछ महापुरुषों के द्वारा दिया गया है, इस आर्टिकल के माध्यम से आप जानेंगे। Manav Vikas ka Aadhar के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी आर्टिकल को पूरा पढ़े चलिए जानते हैं।
Manav Vikas ka Aadhar:
सामान्य जीवन में मूल्य शब्द काफी प्रचलित है। हर वह वस्तु जिसका जीवन में उपयोग होता है उसकी कुछ कीमत तय की जाती है। व्यक्ति उसकी उपयोगिता के अनुसार उस मूल्य धारणा को स्वीकार या अस्वीकार करता है। यह व्यवहारिक जगत की बात है। बाज़ार के विकास के साथ ही विनिमय के लिये मूल्य की अवधारणा ने मुद्रा को जन्म दिया। अब तो बाज़ार-वादी व्यवस्था में सिर्फ किसी वस्तु या पदार्थ का ही मूल्य तय नहीं होता, किसी रचना का मूल्य भी तय होता है और मनुष्य की सेवा का भी मूल्य निर्धारित है। यहाँ तक किसी व्यक्ति की निष्ठा खरीदने के लिये भी मूल्य चुकाना पड़ता है।
यदि आज अर्थशास्त्र के लिये मूल्य एक अनिवार्य तत्व बन चुका है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्योंकि मूल्य चिन्तन की एक पुरानी और लम्बी परम्परा रही है। उस पूरी परम्परा का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मूल्य सम्बंधी धारणा का विकास प्रत्येक समाज के सामाजिक–सांस्कृतिक-भौगोलिक परिदृश्यों पर आधारित रहा। इस बात पर मत-भिन्नता नहीं है कि मानव समाज के विकास की कहानी के साथ मूल्य चिन्तन आवश्यक रूप में जुड़ा रहा। चाहे उस विकास की दिशा बाह्य या भौतिक रही हो अथवा आभ्यान्तरिक या आध्यात्मिक।
मनुष्य ने जब समूह या समाज में शामिल होना प्रारंभ किया तभी से ‘मूल्य’ की खोज शुरू कर दी थी। किसी न किसी रूप में उसके महत्त्व को स्वीकार किया गया। आज भले ही वह आर्थिक जीवन के केन्द्र में दिखाई देता हो, पर सही अर्थों में वह मनुष्य जीवन की यदि आज पूरे विश्व में प्रगाति, विकास और अब प्रवर्धन (डेवलेपमेंट) सामाजिक प्रत्यय बन चुका है तो यह मूल्य सम्बंधी सामाजिक अवधारणा का विकास ही कहा जायगा। इन तीनों के केन्द्र में मनुष्य की ही बात की जाती है।
विस्तार से विवेचन Manav Vikas ki vivechna
इसका विस्तार से विवेचन श्री यशदेव शल्य ने अपनी पुस्तक ‘मूल्य मीमांसा’ में किया है। युनानी दार्शनिक प्लेटो और अरिस्टोटल (अरस्तू) दोनों ने मूल्य की व्यापक मीमांसा की है। प्लेटो मानता है कि मूल्य को बुद्धि से समझा जा सकता है, इन्द्रियों से नहीं।
अरस्तू ईश्वर को ज्ञान का ज्ञान अथवा रूप का रूप मानता है। लेकिन दोनों के बीच विचार-भेद होते हुए भी दोनों ने किसी न किसी रूप में मनुष्य के लिए श्रेय क्या है और प्रेय क्या है, इस पर विचार किया है। एक सुख को ही श्रेयस मानता है और दूसरा ज्ञान को सुख से श्रेष्ठ प्रतिपादित करता है। लेकिन इस दार्शनिक विवेचन में भारतीय दृष्टि को स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में समझ लेना उचित होगा
” मनुष्य का अंतिम लक्ष्य सुख नहीं, ज्ञान है। सुख और आनन्द विनाशशील हैं। संसार में सब दुखों का मूल यही है कि मनुष्य मूर्खतावश सुख को ही अपना आदर्श समझ लेता है। परन्तु कुछ समय के बाद मनुष्य को यह बोध होता है कि जिसकी ओर वह जा रहा है, वह सुख नहीं, वरन् ज्ञान है तथा सुख और दुख दोनों ही महान शिक्षक हैं और जितनी शिक्षा उसे शुभ से मिलती है, उतनी ही अशुभ से भी।
सुख और दुख आत्मा के सम्मुख होकर जाने में उसके ऊपर अनेक प्रकार के चित्र अंकित कर जाते हैं और इन संस्कारों की समष्टि के फल को ही संस्कार कहा जाता है। ” स्वामी विवकेकानन्द जी ने भारतीय चिन्तन-दृष्टि स्पष्ट की है।
हमारे ऋषियों ने विश्व की नियामक
व्यवस्था को ऋत कहा था। ऋत को ही वरेण्य माना गया। इस वरेण्य (ऋत) और अवरेण्य (अनृत) के बीच का अन्तर कैसे किया जाय। यह ज्ञानप्रप्ति से ही संभव होता है। श्रेयस आत्मज्ञान द्वारा मुक्ति है जो मृत्यु लोक का अतिक्रमण करती है। इन्द्रियों द्वारा अनित्य वस्तुओं का सुख भोग ही प्रेयस कहा गया। यह बहिर्मुखी प्रवृत्ति है।
यह प्रवृत्ति तो आदिम मानव से आज तक मौजूद रही। यदि इस सुख-भोग से मनुष्य को तृप्ति हो जाती तो वह इस जीवन से परे जो कुछ है-जिसे हमारे ऋषि शाश्वत सत्य या परम सत्य कहते हैं-उसे पाने की कोशिश ही क्यों करता?
यह खोज भारत में ही नहीं विश्व के अनेक देशों में, वहाँ के चिन्तकों ने जारी रखी। इसी आधार पर दर्शन-शास्त्र की एक महान परंपरा हमें देखने को मिल रही है। यह भी सच है कि मनुष्यों को जीवन से परे, सृष्टि से परे, जो नियामक शक्ति है उस ईश्वर के प्रति ज्यादा ललक है, उत्साह है।
निष्कर्ष:
ऊपर दिए गए कंटेंट के माध्यम से आप ने Manav Vikas ka Aadhar इसके बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी पढ़ी। आशा है आपको ऊपर दी गई जानकारी जरूर अच्छी लगी होगी। आर्टिकल पढ़ने के लिए धन्यवाद।
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