मनु क्या है किसे कहते हैं? मनुस्मृति के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी। Manu Ke Bare Me

नमस्कार आपका स्वागत है हम आर्टिकल के अंतर्गत मनु के बारे में (Manu Ke Bare Me) चर्चा करने वाले हैं। मनु का परिचय काल, मनुस्मृति क्या है? इसके विषय विभाजन क्या है? Manusmriti का रचनाकाल क्या है? सृष्टि के प्रारंभ में मानव जीवन व, मनु (Manu) के आध्यात्मिक एवं राजनीतिक विचार, आप इस आर्टिकल के अंतर्गत पढ़ने वाले हैं चलिए जानते हैं। मनु के बारे में (About Manu) विस्तार से जानकारी पूरा पढ़ें,

मनु क्या है किसे कहते हैं? (Manu Ke Bare Me)

भारतीय राजनीतिक चिन्तन मानव जीवन के सर्वांगीण विवेचना का एक भाग है। प्राचीन काल से ही मानव कल्याण का विचार भारतीय चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है। वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति, मीमांसा आदि ग्रंथों में मानव कल्याण की व्यापक और सर्वांगीण विवेचना प्रस्तुत की गई है। मनुष्य क्या है, उसका अन्तिम लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों ने आदिकाल से मानव मस्तिष्क को उद्वेलित किया है। प्राचीन ऋषियों और चिन्तकों ने मनुष्य को निरा राजनीतिक प्राणी ही नहीं माना है,

अपितु उसे सभी व्यवस्थाओं का मूल माना है तथा व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य मोक्ष निरूपित किया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए समाज और मनुष्य के शरीर को साधन माना गया है। मानव धर्मशास्त्र व्यक्ति के उन धर्मों, कर्त्तव्यों और कार्यों को बतलाता है जिससे कि अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। अतः शुद्ध आचरण का निरूपण स्मृति करती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, अतः उसका समाज में रहने वाले अन्य व्यक्तियों के संपर्क में आना स्वाभाविक और अनिवार्य है।

यह भी सम्भव है कि इस कारण परस्पर कोई विवाद उठे। विवाद आचरण में भूल के कारण उठते हैं। अतः भूल करनेवाले को दण्ड मिलना आवश्यक है। प्रायश्चित के अन्तर्गत दण्ड-व्यवस्था रखी गई है, इसकी विस्तृत चर्चा मनु करते हैं। मनुस्मृति में व्यापक रूप से व्यक्ति के आचार, व्यवहार, प्रायश्चित, वर्णव्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था और मानव जीवन के लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, पुरुषार्थ की व्याख्या की गई है। इसी संदर्भ में राज्य, राजा, विधि और प्रजा के सम्बन्ध में विस्तृत विचार किया गया है।

हिन्दुओं का विधि साहित्य तीन वर्गों में बाँटा गया है, यथा-धर्मसूत्र, धर्मशास्त्र और टीकाएँ। धर्मशास्त्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और मान्य है। धर्मशास्त्र में मनुस्मृति का स्थान सर्वप्रथम है। मनु को, जो मनुस्मृति के रचयिता हैं, धर्मशास्त्र का आदि प्रणेता माना गया है।

मनु का परिचय (Introduction to Manu)

हिन्दू धर्म ग्रन्थों में मनु का नाम सम्मान और आदर के साथ मिलता है। जनश्रुति और पौराणिक आख्यान के अनुसार बनु मानव जाति के आदि-पुरुष थे। मनु का नाम ऋग्वेद A में मिलता है। वेद के अनुसार मनु का प्रत्येक कथन महान् है। मनु ने मानव जाति को सामाजिक संगठन प्रदान किया तथा धर्म, कर्त्तव्य भाव की स्थापना की। तैत्तरीय संहिता में मानव जाति को मनु की संतान कहा गया है। पुराणों में मनु का उल्लेख चौबीस बार हुआ है।

Manusmriti (मनुस्मृति) में भी मनु का परिचय दिया गया है। मनु मानव जाति के पूर्व पुरुष हैं। जब भगवान विष्णु ने सृष्टि रचने का विचार किया तो सृष्टि रचने की इच्छा के साथ ही नाभि प्रदेश से कमल और उस पर आसीन ब्रह्मा प्रकट हुए। ब्रह्मा ने सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को प्रकट किया। सृष्टि वृद्धि के लिए ब्रह्माजी ने स्वयं को अर्द्ध नारीश्वर रूप में आधा भाग स्त्री और आधा भाग पुरुष का संयोजित किया। उनसे स्वयं मनु और उनकी सहचरी शतरूपा उत्पन्न हुईं।

मनु और शतरूपा के मारीच, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलइ, ऋतु, प्रचेता, वशिष्ठ, भृगु, नारद दस प्रजापति उत्पन्न हुए। इन प्रजापतियों से सात अन्य मनु तेजस्वी महर्षि उत्पन्न हुए तथा यहीं से आगे सृष्टि वृद्धि का क्रम निरन्तर चलता रहा। मनुस्मृति में कहा गया है कि प्रथम मनु ने उन धर्मों को घोषित किया जिन्हें ईश्वर ने मनुष्यों के लिए मनु को बताया था। मनु अमर और शाश्वत हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार प्रत्येक मन्वंतर का एक मनु होता है। पुराण चौदह मनु की चर्चा करते हैं।

प्रत्येक मन्वंतर अरबों वर्ष का होता है तथा प्रत्येक मन्वंतर का स्वामी एक मनु होता है। उसी से मन्वतर का नाम जाना जाता है। अब तक छह मनु का शासन काल हो चुका है। वर्तमान में सातवें मनु वैवस्पन मनु का शासन काल है। भविष्य में अभी सात मनु का शासनकाल और आना है। प्रत्येक मन्वतर में चार युग (कृत, त्रेता, द्वापर व कलियुग) होते हैं। इनकी समाप्ति पर धार्मिक कार्य करने वाला तथा धर्म का ज्ञाता पुरुष नए मन्वतर के लिए बच जाता है। वही पुरुष नए मन्वतर और युग कोप्राचीन धर्म और संस्थाओं का ज्ञान कराता है तथा नये युग और मन्वतर के अनुरूप पुराने धर्म को घोषित करता है। इस प्रकार प्रत्येक मन्वतर का एक मनु होता है, मेघा तिथि, जो मनुस्मृति के टीकाकार हैं, का कहना है कि मनु किसी व्यक्ति का नाम नहीं अपितु पद का नाम है।

मनुस्मृति क्या है किसे कहते हैं (Manusmriti Ke Bare Me)

नारद स्मृति में कहा गया है कि प्रथम मनु की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने मनुष्य के आचारव्यवहार के लिए धर्मशास्त्र की रचना की जिसमें एक लाख श्लोक और एक सहस्र अध्याय थे। मनु ने इस धर्मशास्त्र का उपदेश, मारीच आदि ऋषियों को दिया। इन ऋषियों से यह ज्ञान भृगु को प्राप्त हुआ। भृगु द्वारा जो नियम घोषित किए गए उनका संग्रह मनुस्मृति है। ब्रह्मा ने मनुष्य के आचार-व्यवहार के लिए जिस धर्मशास्त्र की रचना की, वह काफी व्यापक था।

कालान्तर में यह संक्षिप्त होता गया। नारद स्मृति में कहा गया है कि नारद ने इस धर्मशास्त्र को संक्षिप्त कर बारह सहस्र श्लोकों में सीमित किया। मार्कण्डेय मुनि ने इसे पुनः सीमित कर आठ सहस्र श्लोकों में तथा सुमि भार्गव ने इसे चार सहस्र श्लोकों में सीमित किया। यद्यपि मनुस्मृति भृगु द्वारा सम्पादित की गई है तथापि इसका नाम मनुस्मृति रखा गया है। मनुस्मृति का शाब्दिक अर्थ है, ‘मनु के उपदेशों का स्मरण’। वर्तमान मनुस्मृति में बारह भाग हैं, तथा कुल श्लोकों की संख्या दो हजार छह सौ चौरानबे है।

मनुस्मृति का विषय विभाजन

Manusmriti व्यापक ग्रन्थ है। इसमें केवल राजनीतिक व्यवस्थाओं और मान्यताओं का ही उल्लेख नहीं है अपितु सृष्टि की रचना, समाज की रचना, व्यक्ति समाज सम्बन्ध, व्यक्ति के जीवन को संचालित करने वाले नियम, धर्म, व्यवहार आदि की व्यापक चर्चा और व्यवस्था है। स्पष्टतः मनुस्मृति एक व्यापक रचना है। मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं, प्रथम अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति, मन्वतरों की कथा, युग के अनुसार धर्म की चर्चा, वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति आदि की चर्चा की गई है।

द्वितीय अध्याय में धर्म की परिभाषा, संस्कारों की महत्ता, जाति आदि की चर्चा है। तृतीय अध्याय में ब्रह्मचर्य, विद्याध्ययन, विवाह, गृहस्थ, धर्म आदि की चर्चा है। चतुर्थ अध्याय में गृहस्थाश्रम, भोजन, भिक्षादान आदि की चर्चा है। पाँचवें अध्याय में जन्म, मृत्यु की अशुद्धियों, स्त्रियों को विधवाओं के धर्म की चर्चा है। छठवें अध्याय में-में पारिव्राजक तथा संन्यासी के धर्म की चर्चा प्रमुख रूप से की गई है। सातवें अध्याय में राजधर्म पर विचार किया गया है।

आठवें अध्याय में राजा के धर्म और न्याय व्यवस्था पर विचार किया गया है। नवें अध्याय में पति-पत्नी सम्बंधी धर्म, विवाह, उत्तराधिकार, स्त्रीधन आदि की चर्चा है। दसवें अध्याय में ब्राह्मण के कार्य, चतुर्वर्ण, आपदधर्म आदि की चर्चा है। ग्यारहवें अध्याय में दान तथा प्रायश्चित पर विचार किया गया है। बारहवें और अन्तिम अध्याय में भट्टर्षियों और भृगु के प्रश्नोत्तर, धर्मगुण, आत्मज्ञान, मोक्ष, परमात्मा दर्शन आदि की चर्चा की गई है।

मनुस्मृति का रचनाकाल (Manusmriti Rachna Kal)

Manusmriti प्राचीनतम ग्रन्थों में से है, क्योंकि प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में रचना के समयकाल का उल्लेख प्रायः नहीं मिलता। अतः यह कहना कठिन है कि इसका रचनाकाल कब का है? अनेक विद्वानों ने अपने-अपने शोध के आधार पर मनुस्मृति के रचना के समय को निर्धारित किया है। फलत: रचनाकाल के प्रश्न पर भिन्नता स्वाभाविक है। डॉ. बी. के. सरकार का मत है कि मनुस्मृति का रचनाकाल 150 ई. पू। के पहिले का नहीं है।

डॉ. यू. एन. घोषाल का मानना है कि मनुस्मृति का काल 200 ई.पू। से 300 ई.पू। के मध्य का है। डॉ. हन्टर का मत है कि मनुस्मृति 600 ई. पू। की रचना है। मेघातिथि ने अन्य भाष्यों का भी उल्लेख किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि मनुस्मृति 7वीं ईसवी सदी तक अधिकृत रूप से धर्मग्रन्थ के रूप में मान्य की जा चुकी थी। डॉ. काणे ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ के तीसरे स्थान में लिखा है कि दूसरी ईसवी शताब्दी के बीच मनुस्मृति का वर्तमान रूप अधिकृत ग्रन्थ बन चुका था।

अतः मनुस्मृति दूसरी ई. पू। से दूसरी ईसवी शताब्दी के बीच किसी भी समय लिखी गई होगी। काल-निर्धारण का विषय केवल यह है कि लिपिबद्ध रूप से मनुस्मृति कब से हमें उपलब्ध है? इस रूप में हम उसके समय को कभी का भी सुनिश्चित करें, पर यह निश्चित है किं मनुस्मृति प्राचीनतम ग्रन्थ है। प्राचीन परम्परा में यह मौखिक रूप से विद्वानों द्वारा कंठस्थ की गई, बाद में इसे लिपिबद्ध किया गया।

Importance of Manusmriti (मनुस्मृति की महत्ता)

हिन्दू समाज में मनुस्मृति की महत्ता निर्विवाद है। मनुस्मृति द्वारा निर्देशित मान्यताओं के आधार पर ही सम्पूर्ण समाज की व्यवस्था और आचार-व्यवहार प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। सम्पूर्ण हिन्दू समाज में सामाजिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों और आचार-विचार की संरचना मनुस्मृति के कारण हो रही है। मनुस्मृति का प्रभाव केवल भारत में ही देखने को नहीं मिला अपितु समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में देखने को मिलता है।

मनुस्मृति भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन का आधार रही है। श्रुति और स्मृतियों ने हिन्दू जीवन पद्धति और मान्यताओं को स्थापित किया है। श्रुति या वैदिक ज्ञान और सिद्धान्त को ऋषियों एवं मुनियों ने जब व्यावहारिक रूप दिया तो वे स्मृतियाँ बनीं। श्रुतियों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे स्वयं ब्रह्मा के वचन हैं, पर स्मृतियों में जिन सिद्धान्तों और कर्त्तव्यों का उल्लेख किया गया है, उनका निरूपण अथवा उनकी बौद्धिक व्याख्या विद्वानों द्वारा की जा सकती है। इस क्रम में मनुस्मृति का उल्लेख किया गया है, उनका निरूपण अथवा उनकी बौद्धिक व्याख्या विद्वानों द्वारा की जा सकती है। मनुस्मृति इसी स्मृति की श्रेणी में आती है।

Manusmriti को मानव धर्मशास्त्र भी कहा गया है। इसमें सतही तौर पर नहीं अपितु व्यापक और गम्भीरता के साथ इस प्रश्न पर विचार किया गया है कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य क्या है? समाज का स्वस्थ कल्याण कैसे हो सकता है? व्यक्ति और समाज के बीच सम्बन्ध कैसे स्थापित किए जा सकते हैं? मनुष्य अपने दायित्वों को कैसे पूरा कर सकता है? सामाजिक और व्यक्तिगत अनुशासन कैसे स्थापित किया जा सकता है?

समाज में सभी प्रकार की प्रकृति, स्वभाव, गुणधर्म के लोग कैसे पारस्परिक तालमेल स्थापित कर सकते हैं और सार्वजनिक एवं निजी हितों को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? संक्षेप में मनुस्मृति में मानवयुग का व्यापक विचार किया गया है कि व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास कैसे सम्भव है? मनुस्मृति में विभिन्न प्रकार की प्रकृति के व्यक्तियों के कर्त्तव्यों (धर्म) का उल्लेख समन्वयात्मक दृष्टि से स्थापित किया है। मनुस्मृति ने नैतिक पक्ष पर बल दिया है। मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मनुस्मृति का महत्त्व है।

मनु के आध्यात्मिक एवं सामाजिक विचार: (Manu Ke Vichar)

मनुस्मृति में शाश्वत् और आध्यात्मिक प्रश्नों और जिज्ञासा का विस्तृत वर्णन किया गया है। जगत् क्या है? इसका स्वरूप कैसा है? इसका प्रारम्भ कैसे हुआ? मानव जीवन का लक्ष्य क्या है? मृत्यु के पूर्व क्या था? मृत्यु के बाद क्या होगा? ये कुछ शाश्वत् प्रश्न हैं जिनके सम्बन्ध में मनुस्मृति में विचार किया गया है।

सृष्टि का प्रारम्भ और मानव जीवन: (First Human Life)

मनु का मत है कि समस्त ब्रह्माण्ड ईश्वर की लीला है, परमात्मा अतीन्द्रिय, अनन्त और नित्य है। परमात्मा के क्षतिरूपी बीज से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा के विभिन्न प्रकार के कर्मों की विवेचना के लिए उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म का विचार बनाया गया। धर्म से सुख और अधर्म से दुःख मिलता है। इस लोक की वृद्धि के लिए ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैर से शूद्र की रचना हुई उन सबके पृथक-पृथक कर्म और धर्म निर्धारित किए गए।

कर्म ही हमारे जीवन को निर्मित करते हैं। सभी कुछ कर्मों का फल है। कर्म जड़ चेतन सम्पूर्ण प्रकृति में नैसर्गिक रूप से चलते हैं। मनुष्य विवेकशील प्राणी है। मनुष्य अपने विवेक से अच्छे बुरे का ज्ञान रखते हुए कर्म करता है। सम्पूर्ण प्रकृति में मनुष्य ईश्वर की श्रेष्ठ रचना है। मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं, ब्राह्मण में भी विद्वान् ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं और विद्वान ब्राह्मणों में भी वे श्रेष्ठ हैं जो धर्म के पालन की आवश्यकता समझते हैं पर इनमें भी अति श्रेष्ठ वे हैं जो धर्मानुसार कार्य करते हैं। मनुष्य धर्मानुसार (कर्त्तव्यानुसर) कार्य करते हुए अपने अन्तिम लक्ष्य तक पहुँच सकता है। मनु कहते हैं कि व्यक्ति का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है।

निष्कर्ष:

दोस्तों आपने ऊपर दिए गए कंटेंट के माध्यम से मनु के बारे में, साथ में मनुस्मृति के विषय सिद्धांत और रचनाकार के बारे में विस्तार से जानकारी पढ़ी। आशा है आपको ऊपर दी गई जानकारी जरूर अच्छी लगी होगी। Manu Ke Bare Me पढ़ने के लिए धन्यवाद,

और अधिक पढ़ें: Vyaktitva Vikas || व्यक्तित्व विकास एवं इतिहास बोध

Leave a Comment