राज्य की उत्पत्ति और सिद्धांत का वर्णन || Rajya Ki Utpatti

हेलो दोस्तों आपका स्वागत है आप इस आर्टिकल के माध्यम से राज्य की उत्पत्ति (Rajya Ki Utpatti) और सिद्धांत मनु वादी सिद्धांत राज्य व्यवस्था के बारे में आप इस आर्टिकल के माध्यम से पढ़ने वाले हैं। यह बहुत इंटरेस्टिंग जानकारी होने वाली है इसे पूरा पढ़ें, चलिए हम महत्त्वपूर्ण जानकारियों पर फोकस करते हैं।

राज्य की उत्पत्ति (Rajya Ki Utpatti)

राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मनुस्मृति में दो प्रकार के विचारों का उल्लेख है। हम उन्हें राज्य की उत्पत्ति के दो सिद्धान्त भी कह सकते हैं। ये दो सिद्धान्त हैं, पहला राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त और दूसरा राज्य की उत्पत्ति का समझौतावादी सिद्धान्त। मनु ने इन दोनों सिद्धान्तों का समन्वय किया है। Rajya Ki Utpatti के दैवीय सिद्धान्त को समझने के पूर्व अति संक्षेप में सृष्टि की रचना के सम्बन्ध में सर्वमान्य हिन्दू सिद्धान्त को समझना आवश्यक है। हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में यह माना गया है कि संसार की उत्पत्ति के पूर्व, चारों ओर जल ही जल था। इसी अवस्था को प्रलयकाल कहा जाता है।

इस अवस्था में चारों ओर अंधकार और अव्यवस्था थी। अंधकार अव्यवस्था दूर करने के लिए परमात्मा का अवतरण हुआ। परमात्मा स्वयंभू हैं, वे अपनी इच्छा से शरीर धारण कर सकते हैं। प्रकट होने के बाद उन्होंने सृष्टि की रचना की इच्छा की। इस हेतु उन्होंने सर्वप्रथम जल की सृष्टि की तथा जल को ही उन्होंने अपना निवास स्थान बनाया। जल में परमात्मा ने अपने शक्तिरूपी बीज को छोड़ा, इससे ब्रह्मा उत्पन्न हुए। ब्रह्मा ने समस्त लोक, आकाश,। दिशाओं, सातद्वीपों वाली पृथ्वी आदि की रचना की। फिर अनेक जीवों को उत्पन्न किया। लोक वृद्धि के लिए ब्रह्मा ने आधे शरीर से स्त्री और आधे शरीर से पुरुष रूप धारण किया (अर्धनारीश्वर) जिसके संयोग से मनु, दस प्रजापति और असंख्य नर-नारियों की Utpatti का क्रम प्रारम्भ हुआ।

राज्य की उत्पत्ति के पूर्व प्राकृतिक अवस्था

प्राकृतिक अवस्था और राजा की सृष्टि:-Rajya Ki Utpatti के पूर्व प्राकृतिक अवस्था थी। इस अवस्था में न तो शान्ति थी और न कोई व्यवस्था थी। कोई नियम आदि नहीं थे। चारों ओर संघर्ष था। बलवान कमजोर को दबाता था, मनमानी का साम्राज्य था। कमजोर अपनी बात कहीं कह नहीं सकते थे। ‘मत्स्य न्याय’ चारों ओर था। संक्षेप में हम इस अवस्था की तुलना हॉब्स ने जिस प्राकृतिक अवस्था की चर्चा की है उससे कर सकते हैं। पृथ्वी पर व्याप्त इस अराजक अवस्था को दूर करने के लिए ईश्वर ने राजा की सृष्टि की।

समझौता सिद्धान्त (compromise theory)

मनुस्मृति में राज्य की उत्पत्ति के सिद्धान्तों की विशद् व्याख्या नहीं की गई है, अपितु संक्षेप में उनका उल्लेख मिलता है। मनु ने राज्य की उत्पत्ति के समझौता सिद्धान्त का उल्लेख किया है। समझौता सिद्धान्त भारतीय राजदर्शन का मान्य सिद्धान्त है। वस्तुतः मनु ने राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त और समझौता सिद्धान्त दोनों का समन्वय-सा किया है। यह भी कहा जा सकता है कि मनुस्मृति में Rajya Ki Utpatti बाह्य रूप से भले ही दैवीय सिद्धान्त रहा, पर उसका आन्तरिक रूप समझौता सिद्धान्त ही है।

राज्य की उत्पत्ति (origin of the state) के पूर्व समाज की दशा अत्यन्त भयावह थी। चारों ओर अराजकता, अव्यवस्था और अस्थिरता थी। मानव जीवन अनिश्चित था। इस स्थिति से ऊबकर मानव ने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उनके जीवन की रक्षा करे। तब ईश्वर ने राजा को उत्पन्न किया। मनु ने राजा को देवों का अंश माना। मनु के अनुसार ब्रह्मा ने देवताओं-इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि और कुबेर के गुणों का सार लेकर राजा को उत्पन्न किया। इस रूप में राजा देवताओं का पृथ्वी पर साक्षात् अवतार है।

मनु का कथन है कि ‘Raja चाहे बालक ही क्यों न हो परन्तु उसका कभी अनादर नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह एक देवता है, जो कि मनुष्य के रूप में पृथ्वी पर विचरता है।’ यहाँ तक तो ठीक है और यह दैवीय सिद्धान्त की ओर संकेत है, पर राजपद ग्रहण करते समय राजा प्रजा के हित में संलग्न रहने की जो शपथ लेता है, वह पूर्णतः समझौते का ही रूप है। मनुस्मृति के अध्याय 7-8-9 में जो वर्णन मिलता है, वह इस तथ्य को उजागर करता है।

मनु कुछ प्रमुख Rajy समझौता सिद्धान्त

1-मनु ने राजा को प्रजा के हित के लिए कार्य करते रहने का आदेश दिया है, Raja अष्टदेवों के सारभूत तत्वों से बना अवश्य है पर वह मनुष्य है तथा धर्म के अधीन है। मनु ने यह भी कहा है कि जो राजा, प्रजा की रक्षा नहीं कर पाता। वह शासक योग्य नहीं है।

2-मनु शासक को अमर्यादित आचरण करने की स्वतन्त्रता नहीं देते। मनु का स्पष्ट मत है कि शास्त्रों की मर्यादा न करने वाले, नास्तिक, उचित-अनुचित का भेद किए बिना दण्ड देने वाले तथा धन लेने वाले राजा को अर्धागति प्राप्त होती है, अर्थात् राजा अनिवार्यतः शास्त्रों एवं औचित्य-अनौचित्य के नियमों में नियंत्रित है।

3-यह ठीक है कि मनु राजा को अष्ट देवों के सारभूत अंग से निर्मित मानते हैं। पर वे स्वयं मनुस्मृति के अध्याय 9 के श्लोक क्रम 303 से 311 तक कहते हैं कि इन देवताओं की गणना उपमा मूलक है। इसकी व्याख्या यह है कि राजा को सूर्य, इन्द्र, वायु, यम आदि देवताओं के गुण और कर्म से प्रेरणा लेनी चाहिए। जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणों द्वारा जल को उड़ाता है तथा इन्द्र वर्षा करता है जिसके कारण अन्न आदि की वृद्धि होती है। उसी प्रकार राजा को सूर्य के समान प्रजा से कर लेकर पुनः इन्द्र के समान प्रजाहित में उसे व्यय कर देना चाहिए। इन उपमाओं का झुकाव समझौते के सिद्धान्त की ओर है।

4-मनु का मत है कि यदि प्रजा राजा से क्रु हो जाय तो उसका परिणाम यह होता है कि उस राजा को स्वर्ग से वंचित होना पड़ता है।

5-मनु व्यवस्था देते हैं कि राजा यदि गलती करता है तो उसे सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक दण्ड भोगना पड़ता है। जिस अपराध के लिए सामान्य व्यक्ति को एक पण का दण्ड दिया जाता है, उसी अपराध के लिए राजा को एक सहस्र पण का दण्ड मिलता है। उपर्युक्त तथ्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि मनु ने राजा को निरंकुश, अनुत्तरदायी और स्वेच्छाचारी नहीं माना, उसका प्रथम दायित्व प्रजा के प्रति है। यदि वह प्रजा के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह नहीं करता और वह अधर्म करता है तथा पाप का भागी और नरक का भोग करता है तथा बन्धु-बान्धवों सहित नष्ट हो जाता है। स्पष्टतः उपर्युक्त तथ्य समझौता सिद्धान्त की ओर संकेत करते हैं। डॉ. जायसवाल भी इस मत के हैं कि राजा की उत्पत्ति समझौता सिद्धान्त के द्वारा हुई है।

राजा की स्थिति एवं उसकी योग्यता (Raja Ki Esthiti)

मनु ने राजा को सर्वोच्च स्थान दिया है। आठ लोकपालों के विशिष्ट गुणों से युक्त राजा सर्वोच्च है। राजा धर्म का संस्थापक है, पर वह स्वयं धर्म के ऊपर नहीं। अतः वह धर्म का उल्लंघन नहीं कर सकता। राजा के साथ विश्वासघात अथवा उसके विरोध में आक्रमण आदि करना महान् अपराध है। राज्य की सभी वस्तुओं का कुछ भाग राजा का होता है, कोई भी राज्य बिना राजा के नहीं हो सकता। युद्ध के समय अथवा अन्य किसी अवस्था में यदि राजा की मृत्यु हो जाती है, तो शीघ्र ही दूसरा राजा नियुक्त किया जाना चाहिए।

राजा के उत्तराधिकार घोषित करने की व्यवस्था मनु ने की है, इसलिए राजा के ज्येष्ठ पुत्र को युवराज घोषित किया जाता है। हिन्दू राजदर्शन में प्रजा का रंजन (प्रसन्न) करने वाले राजतंत्र का प्रायः समर्थन किया गया है। राजा, राज्य अथवा राष्ट्र का सर्वोच्च और सर्वोत्तम सत्ताधारी व्यक्ति होता है। राजा के लिए कहा गया है कि उसे देश, काल, परिस्थिति एवं शास्त्र का ध्यान रखते हुए व्यवहार करना चाहिए। उसे समयानुसार क्षमा, दया, कोप, युद्ध और मैत्री करनी चाहिए। मनु राजा की योग्यताओं का वर्णन करते हैं। मनु के अनुसार, राजा ‘सत्यवादी, समीक्षा परायण, बुद्धिमान, धर्म, अर्थ एवं काम त्रयवर्ण’ के वास्तविक रहस्य का ज्ञाता होना चाहिए।

मनुस्मृति में राजा के निम्नलिखित गुणों का वर्णन है (Raja ke Gun)

  1. राजा को ज्ञानी, विवेकी, मृदु एवं सत्यभाषी तथा शास्त्रानुसार कार्य करने वाला होना चाहिए।
  2. वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों, विद्वानों एवं वृद्धों के प्रति उसमें श्रद्धा होनी चाहिए।
  3. राजा को विनयशील होना चाहिए, जो राजा विनयशील नहीं होता उसका अन्त निकट होता है।
  4. राजा को संयमी, वेदों का ज्ञाता होना चाहिए। जो राजा काम, क्रोध, मद में फँस जाता है वह प्रजा का कल्याण नहीं कर सकता, यहाँ तक कि वह स्वयं नष्ट हो जाता है।
  5. राजा को युद्ध से भयभीत नहीं होना चाहिए, उसे सामर्थ्यवान होना चाहिए। अप्राहन्न को प्राप्त करने की इच्छा वाला होना चाहिए और जो प्राप्त है उसकी रक्षा और वृद्धि करने वाला होना चाहिए।
  6. राजा को काम प्रवृत्त नहीं होना चाहिए। यदि राजा काम प्रवृत्त हुआ तो उसमें निम्नलिखित बुराइयाँ आ जाएँगी, यथा-मृगया, जुआ, दिन में सोना, पराए की निंदा, राजा के कार्य तथा कर्त्तव्य स्त्री में आसक्ति, मद्यपान, नाच-गाने में आसक्ति और व्यर्थ भ्रमण। इनमें भी चार बुराइयाँ अत्यन्त पीड़ादायक हैं, यथा-मद्यपान, जुआ, स्त्री में आसक्ति और आखेट।
  7. राजा को क्रोधी नहीं होना चाहिए। यदि राजा क्रोधी हुआ तो वह इन बुराइयों को जन्म देगा, यथा चुगलखोरी, दुस्साहस, द्रोह, ईर्ष्या, दूसरों के गुणों में दोष निकालना, धन का अपहरण करना, कठोर वचन बोलना और कठोर दण्ड देना। इनमें भी कठोर दण्ड प्रयोग, कटु वचन और दूसरे का धन हड़पना अत्यन्त कष्टदायी हैं। संक्षेप में राजा को कामी और क्रोधी नहीं होना चाहिए।

राजा के कार्य एवं कर्तव्य (Rajya ke Karya aur Kartavya)

राजा, शासन-व्यवस्था का केन्द्र बिन्दु है। शासन के समस्त पदाधिकारियों की नियुक्ति राजा ही करता है। राजा का मुख्य कार्य प्रजा के हितों की वृद्धि करना है। मनु ने राजा के आठ कार्य बतलाए हैं-

  1. जनता से कर वसूल करना,
  2. राजदूतों की नियुक्ति करना,
  3. राज्य के कर्मचारियों को वेतन देना,
  4. शास्त्र द्वारा निषिद्ध कार्यों को न करना,
  5. किसी विषय पर बहुमत होने पर राजाज्ञा के अनुसार कार्य करना,
  6. अभियोगों का निर्णय करना,
  7. शत्रुओं से अपराध के अनुसार धन वसूलना,
  8. अपराधियों और पाप कर्म करने वालों से प्रायश्चित कराना।

राज्य की रक्षा करना राजा का कर्त्तव्य है। इस हेतु राजा का यह कार्य है कि वह गुप्तंचरों की नियुक्ति करे और उनसे प्राप्त सूचनाओं के अनुसार तैयारी करे।

मनु ने पाँच प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन किया है (Manu Ke Gupchar ka)

  1. कापदिक-ये वे गुप्तचर हैं जो कपटी वेष धारण करके राज्य में भ्रमण करते हैं तथा राजा और उसके मंत्रियों के विरुद्ध यदि कोई षड्यंत्र किया जा रहा है तो उसकी सूचना राजा को देते हैं।
  2. उदास्थित-इस प्रकार के गुप्तचर संन्यासी वेष में राज्य में घूमते रहते हैं तथा राज्य के लोगों में राज्य और राजा के प्रति क्या धारणा है तथा कितना भक्ति भाव है? इसका पता लगाते रहते हैं।
  3. गृहपति-इस प्रकार के गुप्तचर गृहस्थ और कृषकों के रूप में जनता में घूमते हैं तथा इनका कार्य राज्य के प्रति जनता में आस्था बनाये रखना होता है।
  4. वैदेहिक-ये वे गुप्तचर हैं जो वृत्तिहीन व्यापारी बनकर व्यापारियों और किसानो में घूम-घूमकर यह जानकारी प्राप्त करते हैं कि कहीं राज्य के खिलाफ असन्तोष तो नहीं फैल रहा है। यदि कहीं असन्तोष फैल भी रहा हो तो ये गुप्तचर उसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं।
  5. तापस-ये वे गुप्तचर हैं जो तपस्वी के वेश में इधर-उधर घूमते-फिरते हैं तथा राजा के पक्ष-विपक्ष का पता लगाते रहते हैं। राजा का यह भी कर्त्तव्य है कि वह राज्य में अनुराग तथा अपराग का पता लगाए अर्थात् राजा के सम्बन्धियों, राजकुमारों, सेनापतियों, मंत्रियों, उच्च पदों पर कार्यरत अधिकारियों में कौन राज्य भक्ति रखता है और कौन नहीं रखता है? इसकी जानकारी एकत्र कर साथ ही यदि किसी प्रकार का असंतोष है तो उसे दूर करने के लिए उपाय बतलाएँ तथा षड़यंत्रों की जानकारी दें।

राजा का कर्त्तव्य (Raja Ke Kartavy)

राजा का यह भी कर्त्तव्य है कि वह यह पता लगाए कि पड़ोसी शासकों में कौन उसका मित्र है और कौन उसका शत्रु है और कौन तटस्थ अथवा उदासीन है। प्राप्त जानकारी के आधार पर राजा को अपनी नीति और कार्य निश्चित करने चाहिए। सशक्त पड़ोसी के विरुद्ध अन्य राजाओं से मिलकर कार्य करना चाहिए। उदासीन राजा को अपना मित्र बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। मित्र राजा के साथ उसे मित्र बनाए रखने के प्रयत्न करते रहना चाहिए।

राज्य में आन्तरिक शान्ति और व्यवस्था बनाना राजा का प्रमुख कर्त्तव्य है। राजा की शान्ति व्यवस्था को चोर लोगों से खतरा रहता है। ये चोर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के हो सकते हैं। जो चोर जनता को छल-कपट द्वारा लूटते हैं वे प्रत्यक्ष चोर हैं। राज्य के जो कर्मचारी रिश्वत लेते हैं तथा भ्रष्टाचार फैलाते हैं, वे भी चोर हैं। दूसरे प्रकार के वे चोर हैं जो चोरी करते हैं, डकैती डालते हैं या लूटमार करते हैं। राजा का कर्त्तव्य है कि वह दोनों प्रकार के चोरों का दमन करे। भ्रष्ट कर्मचारियों को राज्य से निष्कासित कर देना चाहिए तथा उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति का हरण कर लेना चाहिए।

राज्य की प्रकृति (Rajy Ki Prkitik)

राज्य का सप्तांग सिद्धांत-राज्य के स्वरूप अथवा प्रकृति के सम्बन्ध में मनु ने विस्तार से विचार किया है। मनु ने राज्य के सावयत सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। मनुस्मृति में राज्य के सप्तांग सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। आधुनिक युग में राज्य के चार अंग माने गए हैं यथा-भू भाग, जनसंख्या, सरकार और संप्रभुता, इसके विपरीत मनु ने राज्य के सात अंग माने हैं। ये सात अंग हैं

  1. स्वामी (राजा)
  2. अमात्य (मंत्री) ,
  3. पुर (राजधानी) ,
  4. राष्ट्र (भूमि और जनसंख्या) ,
  5. कोष,
  6. दण्ड (सैन्यबल) एवं
  7. मित्र।

किसी भी राज्य में राजा का होना अनिवार्य है। राजा के पद को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। बिना राजा के राज्य में अराजकता फैल जाती है। एक प्रकार से देखा जाय तो राजा से ही राज्य की पहिचान है। राजा ही समाज में शान्ति और व्यवस्था स्थापित करता है। वही प्रजा के जीवन में सुख और शान्ति की स्थापना करता है।

निष्कर्ष:

दोस्तों आपने ऊपर दिए गए आर्टिकल के माध्यम से राज्य की उत्पत्ति (Rajya Ki Utpatti) और सिद्धांत के बारे में जाना आता है आपको ऊपर दी गई जानकारी जरूर अच्छी लगी होगी पढ़ने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

और अधिक पढ़ें: मनु क्या है किसे कहते हैं?

Leave a Comment