व्यक्तित्व विकास और इतिहास बोध इस उपलक्ष्य में कुछ महा महान विचारकों के विचार हैं Vyaktitva Vikas प्रारंभ कब कैसे हुआ? कैसे मानव जीवन में एक विकास देखने को मिला। आदि महत्त्वपूर्ण बातें इस आर्टिकल में आप पढ़ने वाले हैं चलिए जानते हैं Vyaktitva Vikas के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी।
व्यक्तित्व विकास। Vyaktitva Vikas
Vyaktitva के सर्वांगीण विकास का एक सर्वमहत्त्वपूर्ण साधन, इतिहास बोध है। कहा गया है कि दृष्टि बदलने से सृष्टि बदलेगी। दृष्टि को बदलने का हौसला एवं सामर्थ्य इतिहास बोध (History Sense) प्रदान करता हैं। इतिहास में हमें ऐसे महापुरुषों के अविस्मरणीय जीवन प्रसंग मिलते हैं, जिन्होंने अपना सारा जीवन देश, समाज और संस्कृति (culture) के उद्धार में लगा दिया। तप, त्याग, बलिदान और लोक कल्याण ही जिनका जीवनोद्देश्य रहा।
उन्होंने अपने सामने एक ऊँचा आदर्श रखा, आवश्यकता पड़ने पर न केवल स्वार्थ का बलिदान किया अपितु जीवन का उत्सर्ग तक कर दिया। उनकी कथनी और करनी में कभी अन्तर नहीं रहा। जो कहा वह कर दिखाया। वांछित आदर्श को प्राप्त कर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि निर्धनता, शारीरिक त्रुटियाँ (Physical Errors) या साथी सहायकों का अभाव ऐसी बातें नहीं हैं जिनके कारण हम प्रगति के पथ पर अग्रसर होने से निराश हो जायें।
उन्होंने अपने व्यक्तित्व (personality) एवं कृतित्व से यह भी साबित कर दिया कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों की अग्निपरीक्षा मनुष्य में शौर्य-साहस, संकल्प शक्ति, दृढ़ निश्चय और कर्मण्यता का गुण उत्पन्न कर देती है जिनसे वह निर्धारित लक्ष्य की ओर प्रगति मार्ग में बहुत तेजी से बढ़ता है और शान्ति, बुद्धि एवं साधन सम्पन्न लोगों से भी आगे निकल जाता है।
इतिहास बोध हमें पीड़ित मानवता के अनन्य सेवकों के रूप में ऐसे महापुरुषों से परिचित कराता है जिनकी त्याग, निष्ठा, समर्पण, साधना के बलबूते पर ही विश्व वसुधा प्रगति को प्राप्त हो पायी एवं उनके प्रयासों के माध्यम से ही आज मानवता को हम जीवित पाते हैं। इन्होंने अपनी परिधि ‘स्व’ से ऊँची उठाकर समस्त वसुधा रूपी कुटुम्ब (वसुधैव कुटुम्बकम्) के स्तर तक पहुँचा दी एवं मानव मात्र के लिए प्रेरणा के स्रोत बन गए।
Vyaktitva se aap kya samajhte hain
ब्रिटिश सत्ता (British power) की भारत में स्थापना के उपरान्त जब उन्हें भारतीय सामाजिक मामलों में न्याय करने में परेशानी आयी तब उन्होंने 1776 ई. में ‘मनुस्मृति’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘A Code of Gentoo Laz’ के रूप में करवाया। Acharya Mahavir Prasad Dwivedi ने लिखा है-‘ इसे देखकर यूरोप के विद्वत जगत में खलबली मच गई।
उन्होंने कहा-जिस जाति के ज्ञान भण्डार में ऐसी पुस्तकें विद्यमान हैं उसका भूतकाल बड़ा ही उज्ज्वल रहा होगा, उसमें ऐसे-ऐसे न जाने कितने ग्रंथ पड़े होंगे अतएव इस जाति के पूर्व इतिहास से परिचय प्राप्त करने से अनेक लाभ होने की सम्भावना “।” इसी लाभ के उद्देश्य से कलकत्ता में Sir William Jones (1746-1794) के प्रयासों से 15 जनवरी, 1784 को ‘Asiatic Society’ की स्थापना की गई।
इसी के तत्वावधान में 1785 में Charles Willikins महोदय ने भगवद्गीता का भी अंग्रेजी अनुवाद किया। यूरोपीय विद्वानों ने संस्कृत सीखने में रुचि ली। जर्मन विद्वान Maxmuller (1823-1902) ने भारतीय विद्या के अध्ययन को बढ़ावा दिया। उनके सम्पादकत्व में ‘Second Books of the East Series’ के पचास खण्डों में वृहद् पैमाने पर प्राचीन धर्म ग्रन्थों का अनुवाद किया गया।
मानव बुद्धि की सर्वोच्च उपज
यूरोपियों के साथ-साथ भारतीय भी प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में रुचि रखते थे। आर्य समाज के संस्थापक Swami Dayanand Saraswati ने तो ‘वेदों की ओर लौट चलो’ का नारा तक दे डाला। प्रख्यात जर्मन दार्शनिक शापेन् हावर ने उपनिषदों को मानव बुद्धि की सर्वोच्च उपज करार दिया। जर्मन विद्वान Hern Wilhelm ने भगवद्गीता को एक उच्च कोटि का ग्रंथ कहा।
Swami Vivekanand ने कहा कि ‘गीता उपनिषदों के उपवन से चुने हुए आध्यात्मिक सत्यों के सुन्दर पुष्पों का एक गुच्छा है।’ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक महामना Pandit Madanmohan Malviya ने कहा था ” मेरा विश्वास है कि संसार की सभी जीवित भाषाओं में ज्ञान से परिपूर्ण इतनी छोटी पुस्तक कोई नहीं है, जितनी कि भगवद्गीता है। इसमें मनुष्य को सर्वोच्च ज्ञान, पवित्रतम् प्रेम और सर्वोत्कृष्ट कर्म की शिक्षा मिलती है।
गीता आत्म संयम, त्रिविध तप, अहिंसा, सत्य, करुणा, कर्त्तव्य के लिये कर्त्तव्य का पालन करना और अधर्मी के विरुद्ध संघर्ष करने की शिक्षा देती है। मेरी दृष्टि में विश्व साहित्य में Bhagavad Gita जैसी महान रचना कोई नहीं हैं। “
महात्मा गांधी ने भी कहा
भारतीय इतिहास के महान उन्नायक Mahatma Gandhi ने भी कहा है-‘ गीता जगत जननी है। वह किसी को निराश वापस नहीं करती। उसका द्वार उन सबके लिए खुला है जो उसमें प्रवेश करना चाहते हैं मुझे गीता में वह शांति और संतोष मिला है जो पर्वत पर दिये गये उपदेश में भी उपलब्ध नहीं है।
जब कभी मुझे निराशा घेरती है और कहीं से कोई प्रकाश किरण नहीं मिलती है, मैं अविलम्ब भगवद्गीता के पास जाता हूँ। जहाँ-तहाँ कुछ श्लोंकों को टटोलते ही घोर निराशा के अंधकार में भी प्रसन्नता की एक किरण चमक उठती है। मेरा जीवन तो बाह्य कठिनाइयों और दुःखों से भरा पड़ा है। यदि मेरे ऊपर उनका कोई अमिट प्रभाव नहीं पड़ सका है तो उसका श्रेय मुझे प्राप्त Bhagavad Gita की शिक्षा को ही जाता है। ‘
महापुरूषों के व्यक्तित्व
भगवद्गीता की भाँति ही भारतीय बौद्ध साहित्य एवं संस्कृति ने भी महापुरूषों के व्यक्तित्व को आलोकित करने में अहम भूमिका निभाई है। तिब्बत, चीन एवं श्रीलंका सहित अधिकांश एशियाई देशों की आध्यात्मिक उन्नति का श्रेय बौद्ध धर्म को ही जाता है। भारत के कतिपय महापुरुषों के व्यक्तित्व (vyaktitva) को बौद्ध धर्म की शिक्षाओं ने गहराई तक प्रभावित किया।
इनमें सागर विश्वविद्यालय Post के संस्थापक ‘Mahadanveer’ डॉ. सर हरीसिंह गौर (1870–1949) , संविधान निर्माता Dr. Bhimrao Ambedkar (1891-1956) एवं महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन के बौद्ध दर्शन के ज्ञान को देखते हुए उन्हें 3 दिसम्बर, 1928 ई. को “tripitakacharya” की उपाधि तक प्रदान की। रूस के प्रो. श्चेरवात्सकी एवं पेरिस के सिल्वॉलेवी भी बौद्ध धर्म से प्रभावित थे।
1934 में प्रो. Silvolevy ने लिखा था-मेरे जीवन तथा मेरे प्रयत्नों का एक बड़ा भाग बौद्ध विषयक ज्ञान के प्रचार में व्यय हुआ है और जब तक मुझमें कार्य करने की शक्ति है तब तक प्रसन्नता पूर्वक उसी कार्य में लगा रहूँगा। न तो भारतवर्ष और न मानव समाज ही बौद्ध धर्म से बढ़िया कोई दूसरा फल उत्पन्न करने में सफल हो सका है। खास तौर पर मुझे खुशी होगी राहुल सांस्कृत्यायन के साथ काम करने में, क्योंकि मैं भिक्षु राहुल की गणना बौद्ध धर्म के वर्तमान सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में करता हूँ और उन्हें बौद्ध आदर्शों का एक प्रतिनिधि मानता हूँ। -डॉ. बी. के. श्रीवास्तव
निष्कर्ष
ऊपर दिए गए आर्टिकल के माध्यम से आपने happy festival वेबसाइट के अंतर्गत आपने व्यक्तित्व विकास (Vyaktitva Vikas) का इतिहास और बोध के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी पढ़ी। आशा है आपको ऊपर दी गई जानकारी जरूर अच्छी लगी होगी। आर्टिकल पढ़ने के लिए धन्यवाद।
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